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________________ आचाराचे ४२२ वशतः प्रगादमिथ्यात्वमोहनीयोदयात् प्रगाढमोहामान्त इत्यर्थः । एवं स्वकर्मवशतः परिपीडितमपि नितान्तदयनीयमपि रागद्वेपमोहान्याः परितापयन्तीत्याह-अस्मिन् लोके' इत्यादि । अस्य व्याख्या पूर्ववत् योध्या। 'पश्य' इति पदेन भागवता मां संबोध्य यथोपदिष्टं तथा कथयामीति .. जम्बूस्वामिनं श्रीमुधर्मा स्वामी प्रतिबोधयति । 'मव्यथिते' इति विशेषणपदं च स्वस्वकर्मणेव नानाविधवेदनासमन्वितानामपि पृथिव्यादिपजीवनिकायानां परिपीडने विपयमुखतृष्णाक्रान्ताना गाढे मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मोहयुक्त है। इस प्रकार अपने कर्मों से पीडित और अत्यन्त दयनीय पृथ्वीकाय आदि जीवों को राग-द्वेप और मोह से अन्धे पुरुप पीडा पहुंचाते हैं । 'अस्मिन् लोके'-(इस लोक में) इत्यादि की व्याख्या पहले के समान समझ लेना चाहिए. 'पश्य' (देखो) इस पद से श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि-मुझे संवोधन करके भगवान् ने जैसा उपदेश दिया है वैसा ही मैं कहता हूँ।. 'मव्यथिते ' पद से यह सूचित किया गया है कि-वेचारे पदकाय के जीव अपने-अपने कर्मों के कारण नाना प्रकार की वेदनाएँ भोग ही रहे हैं, इस पर भी विषय-सुख के लोलुप लोग उन्हें और सताते है। उन्हें दुःखी देख कर भी इनके અત્યન્ત ગાઢ મિથ્યાત્વમેહનીયના ઉદયથી મેહયુક્ત છે. એ પ્રકારે પોતાના કર્મોથી પીડિત અને અત્યન્ત દયાપાત્ર પૃથ્વીકાય આદિ ને રાગ-દ્વેષ અને મોહથી અંધ ये ५३५ पीपांया छ 'अस्मिन् लोके' (मा.मi) ऽत्याहिनी व्याभ्या પ્રથમ પ્રમાણે સમજી લેવી જોઈએ. 'पइय' (1) मा ५४थी श्री सुधा स्वामी स्वामीन ४ छ :મને સંબોધન કરીને ભગવાને જે ઉપદેશ આપ્યો છે તેવોજ હું કહું છું. प्रत्यथिते । ५४थी मे सूचित ४२पामा भाव छ :-मियास पाया ७५ પિત–પિતાના કર્મોના કારણે નાના પ્રકારની વેદનાઓ ભેગવી જ રહ્યા છે. તે ઉપરાંત पर विषय-सुमन g५ मासा. तेन पधारे सतावे छे. तेनीन un.
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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