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________________ आचारचिन्तामणि- टोका अध्य. १ उ. १ सू.५ आत्मवादि अयमात्मा ज्ञानदर्शनोपयोगाम्यां न भिन्न इति बोधयितुमुपयोगवानिति, इदं च ज्ञानात्मनोरेकान्तभेद इति नैयायिकमतं निराकर्तुमुक्तम् । सर्वज्ञसिद्धान्ते तु द्रव्यं वस्तुतो गुणपर्यायेभ्यो न भिन्नम्, अतः कथञ्चिदभेदविवक्षयाऽऽश्रयिभावं परिकल्प्य - उपयोगवानिति निगदितम् । ० પ उपयोगी द्विधा - ज्ञानदर्शनभेदात् । सविकल्प उपयोग एव ज्ञानोपयोगः, । निर्विकल्प उपयोगो दर्शनोपयोगः । तत्र ज्ञानोपयोगोऽष्टविधः - मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि पञ्च सम्यग्ज्ञानानि, मति श्रुत-विभंग-भेदेन त्रीण्यज्ञानानि चेति । अज्ञानान्यपि ज्ञानरूपतया ज्ञानवर्गे निक्षिप्तानि । अत्रैकमेव केवलज्ञानं क्षायिकं सर्वा'आत्मा ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग से भिन्न नहीं है' यह बतलाने के लिए उसे उपयोगवान् कहा है । 'ज्ञान और आत्मा का एकान्त भेद है ' ऐसा नैयायिकों का मत है । इस मत का निराकरण करने के लिए यह कथन किया गया है । सर्वज्ञ के सिद्धान्त में द्रव्य वास्तव में गुण और पर्यायों से भिन्न नहीं है, अतः कथञ्चित् भेद की विवक्षा करके आधाराधेय भाव की कल्पना से उपयोगवान् कहा है | 6 उपयोग के दो भेद हैं— ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । सविकल्प उपयोग को ज्ञानोपयोग कहते हैं और निर्विकल्प उपयोग दर्शनोपयोग कहलाता है । इनमें से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है- (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः पर्ययज्ञान, (५) केवलज्ञान, (६) कुमतिज्ञान, (७) कुश्रुतज्ञान और (८) विभङ्गज्ञान, अन्तके तीन अज्ञान कहलाते हैं | ये विपरीतज्ञानरूप होने के कारण इन्हें ज्ञान की कोटि में रक्खा है । इनमें > આત્મા જ્ઞાને પગ અને દર્શાનાપયેગથી ભિન્ન નથી, એ મતાવવા માટે જ તેને ઉપયાગવાન કહ્યો છે. જ્ઞાન અને આત્માના એકાન્ત ભેદ છે એવા તૈયાયિકાના મત છે, એ મતનું નિરાકરણ કરવા માટે એ કથન કરવામાં આવ્યું છે. સર્વજ્ઞના સિદ્ધાન્તમાં દ્રવ્ય એ વાસ્તવમાં ગુણ અને પર્યાયેથી ભિન્ન નથી, તેથી કથચિત્ ભેદની વિવક્ષા કરીને આધારાધેય ભાવની કલ્પનાથી ઉપયાગવાન કહ્યો છે. उपयोगना मे ले! छे-(१) ज्ञानोपयोग भने (२) दर्शनोपयोग, सविश्र्दय ઉપયાગને જ્ઞાને પયાગ કહે છે, અને નિવિકલ્પ ઉપયાગ તે દર્શનાપયેાગ अडेवाय छे. तेमां ज्ञानोपयोग आठ अमरनो छे. (१) भतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (४) मन:पर्ययज्ञान, (4) ठेवलज्ञान, तथा (९) शुभतिज्ञान, (७) श्रुतज्ञान भने (८) विज्ञान. तेमां छेपटना वायु अज्ञान हवाय छे. પરંતુ વિપરીતજ્ઞાનરૂપ હાવાના કારણે તેને જ્ઞાનની કેટિમાં રાખ્યા છે. એમાં એક
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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