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________________ २११ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ मू.५ आत्मवादिप्र० । आत्मशब्दार्थः-- अतति-नित्यं जानातीति आत्मा । 'अत सातत्यगमने' इत्यत्रातधातोगत्यर्थकत्वाद् , गत्यर्थानां च जानार्थकतया स्वीकारादयमर्थों लभ्यते । सिद्धसंसारिभेदेन द्विविधस्यापि जीवस्य सर्वदाऽवयोधसद्भावादात्मनः कस्यां चिदवस्थायामुपयोगवियोगो न जायते । कदाचिदप्यववोधाभावे च जीवत्वमेव व्याहन्येत । अत एव-'जीवो उवओगलक्रवणो' इत्युक्तम् (उत्तरा.२८ अ. १० श्लो.) यद्वा-अतति-सततं गच्छति, निरन्तरं प्राप्नोति स्वकीयान् पर्यायानिति-आत्मा। आत्मशब्द का अर्थ"अतति'-इति-आत्मा ' अर्थात् जो नित्य जानता रहता है वह आत्मा कहलाता है । ' अत' धातु सतत गमन करने के अर्थ में है और गमनार्थक सभी धातु ज्ञानार्थक होते हैं, अतः उपर्युक्त अर्थ किया गया है। क्या सिद्ध और क्या संसारी, दोनों ही प्रकार के जीवों में सदैव ज्ञान विद्यमान रहता है, और किसी भी अवस्था में उपयोगका वियोग नहीं होता । किसी समय ज्ञान का अभाव हो जाय तो जीव में जीवत्व ही नहीं रहे । इसी कारण उत्तराध्ययन सूत्र (अ. २८ श्लो. १०) में कहा है :-" जीवो उवओगलक्षणो" जीव उपयोग लक्षण वाला है। अथवा--अतति अर्थात् जो अपने पर्यायों को सतत प्राप्त होता रहता है वह आत्मा है। આત્મા શબ્દનો અર્થ– 'अतति' इति आत्मा अर्थात् रे आता २९ छे, ते भत्भा उपाय छे. 'अत' पातु सतत शमन ४२वाना मथमा छे. मन शमनार्थ सर्व पात ज्ञानार्थ પણ હોય છે. (ગમન કરવું એવા અર્થવાળા તમામ ધાતુ જ્ઞાન અર્થવાળા પણ હોય છે) એ કારણથી ઉપર કહેલ અર્થ કર્યો છે. તે શું સિદ્ધ અને સંસારી બંને પ્રકારના છમાં હમેશાં જ્ઞાન વિદ્યમાન રહે છે અને કઈ પણ અવસ્થામાં ઉપયોગને વિગ થતો નથી કેઈ સમય જ્ઞાનને અભાવ થઈ જાય તે જીવમાં જીવત્વ જ ન २७. से २४थी उत्तराध्ययन सूत्र (स. २८ . १०) मा यु छ :"जीवो उवओगंलक्षणो" "०१५ सक्षवाण छ." અથવા–અતતિ અર્થાત્ જે પિતાના પર્યાને સતત પ્રાપ્ત થતું રહે છે, તે આત્મા છે.
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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