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________________ २०९ आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ मृ. ५ आत्मवादिप्र० आत्मवादिप्रकरणम्यस्तु द्रव्यदिशु भावदिशु चात्मनो गत्यागती अवगत्य स्वमात्मानमेवं विजानाति-'अयमात्मा असिद्धगतिप्राप्तिचतुर्गतिपु घूर्णमानो जन्मान्तरसंक्रान्तत्रिकालवी शरीराद् मिन्नो नित्यपरिणामी ज्ञानसम्यक्त्वचारित्रसुखवीर्यादिगुणवानिति, स एवात्मवादीत्याह--' से आयावादी' इत्यादि । मूलम्.: ' से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी ॥ सू० ५ ।। छायास आत्मवादी, लोकवादी कर्मवादी, क्रियावादी ।। सू० ५ ॥ आत्मवादिप्रकरण- जो जीव द्रव्य दिशाओं में और भावदिशाओं में आत्मा का गमन-आगन जान कर अपनी आत्मा के विषय में इस प्रकार जानता है कि यह आस्मा सिद्धगति को प्राप्तिरहित चार गतियों में भ्रमण करता हुआ एक जन्म से दूसरे जन्म को ग्रहण करता है, त्रिकालवर्ती है, शरीर से भिन्न है, नित्यपरिणामी है, और सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य आदि गुगों वाला है, वही आत्मवादी है । अब इसी विषय का निरूपण किया जाता है :-'से आयावादी' इत्यादि। मूलार्थ-'से आयावादी' इति । यही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है, कीयावादी है ( सू० ५) આત્મવાદી પ્રકરણ - જે જીવ દ્રવ્યદિશાઓમાં અને ભાવદિશાઓમાં આત્માનું જવું–આવવું જાણીને પિતાના આત્માના વિષયમાં એ પ્રમાણે જાણે છે કે – આત્મા સિદ્ધગતિની પ્રાપ્તિ વિના બીજી ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ કરતે કરતે એક જન્મથી બીજે જન્મ ગ્રહણ કરે છે, ત્રિકાલવતી છે શરીરથી ભિન્ન છે, નિત્યપરિણામી છે અને સમ્યકત્વ, જ્ઞાન, ચારિત્ર, સુખ, વીર્ય આદિ ગુણો વાળે છે, તે આત્મવાદી છે. હવે આ વિષયનું निय ४२वामां मावे -'से आयावादी' त्यादि. - भूदाथ-'से अयावादी' पति. ते मात्भपाही छे, काही छे, भी छे मन ठियावाही छे. (स, ५) म. भा.-२७
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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