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________________ २०३ - - - याय आगतः अनुसार इत्यव्ययं मागज्ञानामात्र 'नो आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ २.४ संज्ञा सोचा, तंजहा-पुरत्थिमाओ वा दिसामी आंगओ अहमंसि, जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगो अहमंसि, एवमेगेसिं णायं भवइ-अस्थि मे आया ओववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ या संचरई, सन्चाओ दिसाओ सव्याओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसंचरइ सोऽहं ।। सू० ४॥ .. (छाया) अथ यत् पुनर्जानीयात्-सहसंमत्या, परव्याकरणेन, अन्येपामन्तिके वा श्रुत्वा, तद्यथा-पूर्वस्या दिशाया आगतोऽहमस्मि यावत् अन्यतरस्या दिशाया अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मि । एवमेकेषां ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः, योऽस्या दिशाया अनुदिशाया या अनुसंचरति, सर्वस्या दिशायाः सर्वस्या अनुदिशाया य आगतः अनुसंचरति सोऽहम् ॥ ० ४ ॥ से जं पुण' इति । 'से' इत्यव्ययं मागधभापायामधशब्दार्थकम् । 'अथ' इति, अनेन ‘नो सन्ना भवः' इति द्रव्यदिग्ज्ञानाभावं 'नो णाय भवइ ' इति भावदिगज्ञानाभा च प्रदश्य तज्ज्ञानपारम्भ इति घोत्यते । से आया हूँ (यावत् ) अन्यतर दिशा से अथवा विदिशा से मैं आया है। इस प्रकार कितनेक जीवों को ज्ञान होता है कि मेरा आत्मा औपपातिक (जन्म लेने वाला) है; जो इस दिशा से अथवा अनुदिशा से संचार करता है, सभी दिशाओं से, सभी अनुदिशाओं से आया हुआ जो आत्मा भ्रमण करता है, वह मैं हूँ । (सू० ४) टीकार्थ-मागधी भाषा में 'से' अव्यय 'अ' शब्द के अर्थ में है। यहाँ 'अथ' शब्द से यह प्रकट किया गया है कि पहले के सूत्राम 'नो सन्ना भवइ' इत्यादि कहकर द्रव्यदिशा के ज्ञानका निषेध करके, और 'नो णाय भवई' इत्यादि कह कर मावदिशासम्बन्धी ज्ञान का निषेध करके अब इस ज्ञान की उत्पत्ति का प्रकार प्रदर्शित करते हैंપૂર્વ દિશાથી આવ્યા છે. યાવતુ બીજી દિશાએથી અથવા વિદિશાઓથી હું આવ્યો છું, આ પ્રમાણે કેટલાક જીવને જ્ઞાન થાય છે કે-મારો આત્મા ઔપપાતિક (જન્મ લેવાવાળા) છે, જે આ દિશાથી અથવા અનુદિશાથી સંચાર કરે છે. સર્વ દિશાઓથી, સર્વ અનુદિશાઓથી, આવેલ જે આત્મા ભ્રમણ કરે છે તે હું છું (સૂ.૪) ટીકાથ–માગધી ભાષામાં સે અવ્યય “અથ,” શબ્દના અર્થમાં છે. અહિં 'मथ' शपथा मे प्रगट यु छ -प्रथमना सूत्रोमा 'नो सन्ना भवई' इत्याहिहीन द्र०यहिशाना ज्ञान निषध शने मन 'नो णायं भवइ-त्याहि डीने माहिशासनधी જ્ઞાનનો નિષેધ કરીને હવે તે જ્ઞાનની ઉત્પત્તિને પ્રકાર પ્રદર્શિત કરે છે–
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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