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________________ १२० मिस्स णिद्वेण दुयाहिएण, लुक्स लक्खेण दुयाणि । गिद्धस्स लुक्खेण उबेर बन्धो, जहण्णवज्जो बिसमो समो वा ॥२॥ (मज्ञा० पद - १३ ) छाया - स्निग्धस्य स्निग्धेन द्विकाधिकेन, रूक्षस्य रूक्षेण द्विकाधिकेन । ferrate रूक्षेण उपैति बन्धो, जघन्यवर्जो विषमः समो वा ॥२॥ इति, विसदृशस्य वन्धमाह - " गिद्धस्स लुक्वेण" इत्यादि । आचारापत्रे स्निग्धस्य रूक्षेण सह बंध उपैति उपगतो भवति जायत इत्यर्थः । यदि परमाणुर्जघन्यवर्जी विषमो समो वा भवेत् | ॥२॥ परमाणूनां वन्धव्यवस्थाकोष्ठकमग्रेऽवलोकनीयम् । दो गुण अधिक के साथ स्निग्ध का बन्ध होता है । और दो गुण अधिक रूक्ष के साथ रूक्षका बन्ध होता है। अब विस बन्धको कहते हैं-" गिद्धस्स लक्खेण " इत्यादि । जघन्य गुणवाले परमाणु को छोडकर फिर चाहे वह विषम हो या सम हो स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होता है । परमाणुओं की बन्धव्यवस्था का कोष्टक पृष्ट १२१ देख लेवें । એ ગુણુ અધિક સ્નિગ્ધ સાથે સ્નિગ્ધને બંધ થાય છે. અને એ ગુણ અધિક इक्षनी साथै इक्षनो जन्म थाय छे. हुवे विसदृश अन्ध हे छे-“द्धिस्स लुक्खेण" ઈત્યાદિ. જધન્ય ગુણવાળા પરમાણુને છેડીને બીજા ગમે તે વિષમ હાય અથવા સમ હાય તે સ્નિગ્ધને રૂક્ષની સાથે અધ થાય છે. પરમાણુઓની અધવ્યવસ્થાનું કાષ્ટક પેજ ૧૨૧માં જેઈ લેવું.
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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