SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैं तो त्रिकाल, पूर्ण, शुद्ध, ज्ञानानंद, सुख शांतिमय ही हूं मैं परिपूर्ण, कुछ भी कैसे और क्यों करूं? जानना भी तो मेरा कर्म और मैं इसका कर्ता भी कैसे बनं. मैं तो परिपूर्ण चैतन्यमात्र, ज्ञानमात्र, तत्व हूं न जगत का जाननहार स्वयं में ही ज्ञानानंद ही हन कर्ता-कर्म क्या है? मूर्ख यह तो मूर्खता ही है और क्या है. * * * "प्रथम भूमिका में शास्त्र श्रवण पठन मनन आदि सब होता है, परन्तु अंतर में उस शुभ भाव से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये. इस कार्य के साथ ही ऐसा खटका रहना चाहिये कि यह सब है किन्तु मार्ग तो कोई अलग ही है. शुभाशुभभाव से रहित मार्ग भीतर है - ऐसा खटका तो साथ ही लगा रहना चाहिये." बहेनश्री के वचनामृत-२५ 170
SR No.009270
Book TitleSurakshit Khatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Maru
PublisherHansraj C Maru
Publication Year2014
Total Pages219
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati, Book_Devnagari, & Book_English
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy