SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ अथ कुलसंख्याविचारः। इकेकी योनि कुल घणां हुई । एक जिम छाणनी योनिमांहि कृमिकुल घणा जुआं' हुईं, कीडना कुल जुआं हुई, वींछीना कुल जुआं हुई। इसी परिई योनिइं कुल घणा हुई। वनस्पतिकायमांहि २८ लाख कुलकोडि, बेंद्रियमांहि ७ सात लाख कुलकोडि, त्रींद्रियमांहि ८ लाख कुलकोडि, चउंद्रि (रिद्रि)यमांहि ९ लाख कुलकोडि, जलचरमांहि साढाबार लाख कुलकोडि, खेचरमांहि १२ लाख कुलकोडि, स्थलचरमांहि १० लाख (कुल) कोडि, गोह-नकुलादिक भुजपरिसर्पमांहि ९ लाख (कुल) कोडि, उरसर्पजातिमांहि १० लाख कुलकोडि, एवं संज्ञिया असंज्ञिया तिर्यंच पंचेंद्रियमांहि साढ ५३ लाख कुलकोडि, मनुष्यमांहि १० लाख (कुल) कोडि, नारकीमांहि २५ लाख कुलकोडि, देवमांहि २६ छवीस लाख (कुल) कोडि एवंकारइ एक कोडाकोडि, सत्ताणु लाख कोडि, पंचा स ] सहस्र कोडि कुल हुई । १,९७,५०,०००,०००,०००० इति कुलसंख्याविचारः । मन:स्थिरीकरणप्रकरणम् अथ वेदविचारः। पुरुषहुइं स्त्री ऊपरि अभिलाष ते तृणपूलाग्निज्वालासमान पुरुषवेद कहीई १। स्त्री हुई पुरुष ऊपरि अभिलाष ते कारिसना अग्नि सरीखउं स्त्रीवेद कहीइ २ । पुरुषस्त्री बिहुं ऊपरि जे अभिलाष ते नपुंसकवेद नगरदाहसमान । पृथ्वी(काय) १ अप्काय २ तेउकाय ३ वाउकाय ४ वनस्पतिकाय ५ बेंद्रिय ६ क्रेंद्रिय ७ चउरिंद्रिय ८ हुई नपुंसकवेदजि हुई। असंज्ञिया तिर्यंच पंचेंद्रिय हुई नपुंसक वेदजि हुइ । पुण आकार मात्र त्रिणइ हुई । जिम छपी गंगेदि आडेडिक (?) इत्यादि । संज्ञिया तिर्यंच पंचेंद्रियहुइं अनइ मनुष्यनइं स्त्रीवेद १ पुरुषवेद २ नपुंसकवेद ३ हुई। असंज्ञिया मनुष्यहुइं नपुंसकजि हुई। नारकी हुई एक नपुंसकजि हुई । देवहुई स्त्रीवेद १ पुरुषवेद २ हुइ। इम तेरे थानके वेद विचारिआ । अथ कायस्थितिविचारः। कायस्थिति ते कहीइ जे पृथ्वीकायादिक एकजि जातिमांहि वली वली मरइ वली वली ऊपजइ। जेतलउ काल एकजि जातिमांहि भव - पूरतउ रहइ, अनेरी जाति न जाइ तेतला कालहुई कायस्थिति कहीइ। ते जघन्य उत्कृष्ट कही । ए कायस्थिति तेरे थानके विचारीइ छइ । खडी, वानी, अरणेटा माटी प्रमुख पृथ्वीकायजिनी जातिमांहि को जीव वली वली मरइ वली वली ऊपजइ । इम पृथ्वीकायमांहि केतलउ काल हुइ ? जघन्यत बिभव ब अंतर्मुहूर्त। बिहु भवे १ अंतर्मुहूर्त हुइ । जघन्यत कायस्थिति बिहु भव पाखइ न कहीइं। एक भव भवस्थितिजि कहीइ। पृथ्वीकायमांहि उत्कृष्टी कायस्थिति असंख्याताभव । काल आश्री असंख्या ते चऊद रज्वात्मक लोक जेवडे खंडे जेतला आकाश प्रदेश हुई तेतली उत्सर्पिणी अवसर्पिणी जाणिवी । इमजि अप्काय, तेउकाय, वाउकायइमांहि जघन्य उत्कृष्टउ कायस्थिति हुइ । वनस्पतिकायमांहि जघन्य कायस्थिति बि भव काल आश्री अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टी कायस्थिति अनंता भव। अनन्ते चऊदरज्वात्मक लोक जेवडे आकाशखंडे जेतला आकाशप्रदेश तेतली उत्सर्पिणी अवसर्पिणी हुई। पुद्गलपरावर्ता जु जोईइ तउ एक आवलीनइ असंख्यातमइ भागि जेतला समय हुई तेतला असंख्यात पुद्गलपरावर्त्त वनस्पतिकायमांहि कायस्थिति काल जाणिवउ । बेंद्रिय २ त्रींद्रिय ३ चउरिंद्रिय ४मांहि जघन्य कायस्थिति बि बिइ भव; बिहु भवे थई अंतर्मुहूर्त काल, उत्कृष्ट कायस्थिति संख्याता भव; काल आश्री संख्यातां वर्षसहस्र जाणिवी । असंज्ञिया तिर्यंच पंचेंद्रिमांहि जघन्य कायस्थिति बि भव; काल आश्री अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टी कायस्थिति सात भव । साते भवे सात पूर्वकोडि । आठमओ भव न हुइ, जि आठमइ भवि जाइ तउ युगलियामांहि जाइ, तेहां ते संज्ञिउजि हुइ । संज्ञिया तिर्यंच पंचेंद्रियमांहि जघन्य १ = जुदा, भिन्न
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy