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________________ १२२ मन:स्थिरीकरणप्रकरणम् निवृत्तिबादर ८, अनिवृत्तिबादर ९, सूक्ष्मसंपराय १० ए त्रिणि गुणठाणां एकेकेपाहिं घनउं चोखा अध्यवसाय रूप उपशमश्रेणि अनइ क्षपकश्रेणि चडतां हुई। एहे गुणठाणे उपशमश्रेणि करतउ मोहनीय कर्म संघलुहुई उपशमावई। पुण सत्तांहुई पुण उदय नावइं। अनइ क्षपकश्रेणि करतां मोहनीय कर्म सघलुं क्षपइ पोताथकउं त्रोडई। इग्यारमउं उपशांतमोह गुणठाणउं उपशमश्रेणिनइ माथइ हुई। तिहां थकउ पडिउ पाछउ मिथ्यात्व लगइ जाई। जइ तिहांजि रहिउं मरई तउ अनुत्तर विमानि जाइ ११। बारमउं क्षीणमोह गुणठाणउं तिहां ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, अंतराय ए त्रिणि कर्म क्षेपई मोहनीय कर्म आग(ल)ई सूक्ष्मसंपराय गुणठाणइं जि रहिउं १२। तेरमउं सयोगिगुणठा-णउं केवलज्ञान ऊपना पुठिइं १३। चउदमउं अयोगिगुणठाणउं ते मोक्षि जातां सइरना विस्तारनउ त्रीजउ भाग संकोचीइ बिभागनइ विस्तारि आत्माइं रहिइं हुई जेतली वेलां पाच अ-इ-उ-ऋ-ल हृस्व अक्षर उच्चरीइं तेती वेलां प्रमाण हुइ १४। ए गुणठाणां १४ कही। पृथ्वीकायमांहि पहिला बि गुणठाणां हुई। एकतां मिथ्यात्व १ बीजु -सम्यक्त्व वमतउ मरइ पृथ्वीकायमाहि जाइ तेहहुई धुरि दस हुई। पुण ते डहुली' भणी सिद्धांतवादी लेखइ न गणइ, मिथ्यात्वइजि कहइ। इम अप्कायमांहि एह जि बि गुणठाणा जाणिवां २। तेउकाय-वाउकायमांहि मिथ्यात्वरूप एकइजिं गुणठाणुं कहीइ। जेह भणी सम्यक्त्व वमतउ तिहां न जाइ ३-४। वनस्पतिकायमांहि पृथ्वीकायनी परि पहिलाइंजि बि गुणठाणा हुई।५ बेंद्रिय केंद्रिय चउरिंद्रिय अनइ असंज्ञियां तिर्यंच पंचेंद्रियमांहि पहिलाइजि बि गुणठाणां हुई, जेह भणी सम्यक्त्व वमतउ को को जाइ। तेह भणी एहमांहि बि गुणठाणां सिद्धांतना जाणई मानई ६-७-८-९। संज्ञिया पंचेंद्रिय तिर्यंचमांहि मिथ्यात्व-सास्वादन-मिश्र-अविरत-देशविरत ए पांच गुणठाणा हुई, जेण भणी के के तिर्यंच जांतिस्मरणादिके करी देशविरतिइ पडिवजई १०। संज्ञिया मनुष्यमांहि चऊदई गुणठाणा हुई। असंज्ञिया मनुष्यमांहि एक मिथ्यात्व जि हुई। सम्यक्त्व वमतउ तेहमांहि न जाइ ११। नारकी अनइ देवमाहि मिथ्यात्व सास्वादन-मिश्र- अविरत ए चारिजि गुणठाणा हुई। एवं तेर १३ थानके गुणठाणां विचारियां। अथ योगविचारः। योग कहीयई साची वस्तु मनि चीतवीतवीइं जगमांहि ‘जीव छई' इत्यादि ए सत्यमनोयोग कहीइं। जे वस्तु कूडी मनमांहि चींतवइ ‘जीव नथी' इत्यादि ए असत्य मनोयोग २। घणी जूजुई जातिना वृक्षनउं वन देखी इम चीतवइ ‘ए आंबाइजिनउ वन' ए सत्यामृषावाद मनोयोग कहीइ। जेह भणी कांई साचउं काई कूडउं ‘तेहमांहि घणाई आंबा छई' तेह भणी साचउं अनराइ धव-खइर-पलासादिक वृक्ष छइं तेह भणी कूडउं ३। जे आदेश निर्देशादिकना वचन मनिचीतवई हे! देवदत्त! घडउ आणि' 'अमुकउं मूहरइ दिइ' इत्यादिक आदेशनिर्देशना मन ते असत्यामृषा मनोयोग कहीइ। जेह भणी ए साचउंइ नही अनइ कूडउं नही व्यवहारवचन भणी ४। इंम चिह प्रकारि वचनयोग जाणिवउ ८। सात काययोग कही। औदारिक सरीर हुई ते औदारिक काययोग ९ परलोक थकउ जीव आवइ मनुष्य तिर्यंच मांहि ऊपजई तिवारई कार्मणसिउं औदारिकना पुद्गल मिश्र हुई तेह भणी औदारिक मिश्रकाययोग १०। जीवहुई परलोकि जातां विचालइ कार्मण काययोग ११। देवलोकि अनइ नरकि ऊपजतां जीवहुई वैक्रियमिश्रकाययोग हुइ १२। देवनारकीनइ सरीर नीपना पूठिई वैक्रिय १ = शरीर २ = अल्प
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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