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________________ साधु परमेष्ठि पूजन (सुन्दरी) रहत मग्न सुध्यान सुभावते, परम तब कर हर्ष बढ़ावते। होय साधु महाव्रत धारते नमनकर हम पूज रचावते।। ऊँ ह्रीं श्री अष्टाविंशति मूलगुण धारक साधु परमेष्ठिन् अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्री अष्टाविंशति मूलगुण धारक साधु परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री अष्टाविंशति मूलगुण धारक साधु परमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। अथाष्टकम् (गीता) जल सुप्रासक सुरसरीका स्वर्ण झारी लाइया। दे धार चरणों में सु आकर, जन्म मृत्यु नशाइया।। साधु हो तुम साधना में साधते निज आत्मा। हम पूजते पद युगल नित प्रति पद लहूं परमात्मा।। ऊँ ह्रीं श्री अष्टाविंशति मूलगुण प्रतिपालक साधु परमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा॥1॥ केशर कपूर सुगन्ध चन्दन घिस कटोरी में लिया। चर्चे युगलपद हर्ष धरकर ताप भव का नशदिया।। साधु हो तुम साधना में साधते निज आत्मा। हम पूजते पद युगल नित प्रति पद लहूं परमात्मा।। ऊँ ह्रीं श्री अष्टाविंशति मूलगुण प्रतिपालक साधु परमेष्ठिभ्यः संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।2॥ 995
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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