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________________ यह वर्तमान जो कलि काल, कहते पंचम दुखमा जु काल। फिर पावे इसमे जीव ताप, जहां घोर महा मिथ्या कलाप॥2॥ हर थान वामि पन्थि अपार, आरोप किया जिन धर्म सार । फैलाया था मिथ्यात्व अन्ध, सब जीव हुए सम्यक्त्व मन्द || 3 || उस वक्त प्रभु जिन धर्म हेतु, तुम प्रगट हुए थे धर्म सेतु । हो नष्ट किया पाखण्ड मार्ग, बतलाया था तुम मोक्ष मार्ग।।4। अरु की प्रभावना आप सार, कर खण्ड खण्ड मिथ्याप्रचार । बतलाया सम तुम तुर्यकाल, जय सूरि हो तुम सुगुणपाल॥5॥ जय भूत भविष्यत वर्तमान, आचार्य हुए जो सुगुणवान। उन स्याद्वाद वाणी अपार, जय हित मित प्रिय हो सुखदसार॥6॥ दश धर्मादिक सेवत महन्त, अरु द्वादश विधि तुम तप तपन्त । षट आवश्यक मनमें उतार, अरु गहते पंचाचार सार || 7 || जय गुप्तित्रय वश में सु आन, इह विधि षटत्रिंशद गुण महान्। इन पाले श्रद्धा धार आप, कहलाते सूरि धर प्रताप ॥ 8॥ हो परम तपस्वी गुण निधान, जय मोह सुभट को नष्ट ठान। तुम शिक्षा दीक्षा दो अनूप, चारित्र बताया है स्वरूप ॥9॥ हो नग्न दिगम्बर तीर्थ रूप, भविजीव निकारे नीच कूप। सब भारत वर्ष बिहार कीन, उपदेश दिया तुम समीचीन॥10॥ हो करुणा सागर गुण अगार, अनुप्रेक्षा चिन्ते बार बार। बावीस परिषह हर्ष ठान, तुम सहते गुरुवर सुगुणवान।।11।। तब कथिर शास्त्र मंगल स्वरूप, जो बांचे सरधे हित अनूप विपरीत करे जो ज्ञान गर्व पावे नरकों का कष्ट सर्व॥12॥ तब नाम लेत कल्पमष नशाय, अरुपावे सुख शिवनगरी जाय। 982
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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