SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 975
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादश विधि तप आचरे अन्तर बाहिर जान । खेद नहीं मन में करे पूज मिले शिव थान। ऊँ ह्रीं उत्तम तप धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥7॥ परद्रव्यन से भिन्न है राग द्वेष नहीं होय । त्याग धर्म निश्चय कहे आचारज पद सोय ।। ऊँ ह्रीं उत्तम त्याग धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥8॥ अन्तर बाहर भेद से संग कहें हैं दोय। त्यागा उन मुनिराज न धर्म अकिंचन होय।। ऊँ ह्रीं उत्तम अकिंचन धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥ निजपर की तिय त्यागकर व्रतधारा असिधार। पूर्ण ब्रह्मचारी भये नमन करूं त्रय बार।। ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म प्रतिपालक श्री आचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। (अथ 12 तप अर्घ) भुजंगप्रयास एक दिन चार दिन अष्ट पक्ष मास लो। मास दोय मास छह त्याग अन्न जल भलो ॥ सूरि महाराज को ध्याय शुभ भाव सो। नीर गन्ध अक्षतादि पूजते चाव सो।। ॐ ह्रीं अनशन तप प्रतिपालकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥1॥ भूख अर्द्धले भाग चवथा है। ग्रास दोय ग्रास एक वृत्त एसो लहे। सूरि महाराज को ध्याय शुभ भाव सो। नीर गन्ध अक्षतादि पूजते चाव सो।। ॐ ह्रीं उनोदर तप धारकाचार्य परमेष्ठिदेवेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 2॥ 975
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy