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________________ ज्यों चितेरा चित्र खींचे नाम तद्वत जानिया । यह नाशकर जिनराज तुमने सुख सु अविचय ठानिया ।। लोकाग्र राजे निज सु साजे गुण सु वसु तुम पाइया। हम नमन करके पद यजे अति मोद मनसु बढ़ाइया ।। ऊँ ह्रीं त्रय नवति नाम कर्म प्रकृति विनाशक सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥6॥ गोत्र कर्मसु दो विधि है नीच ऊंच बखानिया । करनाश रिपु यह है जिनेश्वर अगुरुलघु गुण जानिया ॥ लोकाग्र राजे निज सु साजे गुण सु वसु तुम पाइया। हम नमन करके पद यजे अति मोद मनसु बढ़ाइया ।। ॐ ह्रीं द्वि प्रकार गोत्र कर्म प्रकृति विनाशक सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥7॥ अष्टमसु रिपु का नाश करके, जय अष्टम भू बसे। वीर्यत्व शक्ति पाय करके आत्म निज मे तुम लसे। लोकाग्र राजे निज सु साजे गुण सु वसु तुम पाइया। हम नमन करके पद यजे अति मोद मनसु बढ़ाइया ।। ऊँ ह्रीं पंच प्रकार अन्तराय कर्म प्रकृति विनाशक सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥8॥ दोहा अष्ट कर्म को नष्ट कर, अष्ट महागुण पाय। वसु विधि सुन्दर द्रव्य से पूजे जिनवर आय।। ऊँ ह्रीं अष्टकर्म विनाशकः सिद्धपरमेष्ठिभ्यो पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥ ऊँ ह्रीं सिद्ध परमेष्ठिदेवेभ्यो नमः स्वाहा। (यहां 9 बार जाप्य करें।) 969
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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