SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 957
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पदतल प्रभु के कमल रचाय महिमा है जिनवर सुखदाय। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं पदतल कमल रचनातिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।30॥ अति निर्मल आकाश लखाय सब जीवों का मन हर्षाय। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं गगन निर्मल अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।31॥ धूम रहित सब दिश शोभन्त, जहां विराजे श्री भगवन्त। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं सर्व दिशा निर्मल अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।32॥ धर्म चक्र प्रभु आगे सोय महिमा जिनवर कहत न होय। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं धर्मचक्र अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।33॥ मंगल द्रव्य अष्ट शुभ लेय, देव भक्ति वश करत स्वमेव। यह अतिशय जिनराज कहाय देवोंकृत है जिन श्रुत गाय।। ऊँ ह्रीं देवकृत अष्ट मंगलद्रव्य अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।34॥ दोहा चवदह अतिशय करत है सुमन भक्ती में आन। पूजे अध्य चढ़ाय के पावे पद निर्वाण।। ऊँ ह्रीं चतुर्दश अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योपूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 957
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy