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________________ जहां विराजे ईशसु भवि हितकार जी। मार सके तिस ठौर नहीं किस बार जी।। ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के। मन वच तन से पूजू सिर नाय के। ऊँ ह्रीं अदया भावातिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।13। होय नहीं उपसर्ग प्रभु जी आपको। देव मनुष्य पशु करे नहीं सन्ताप को। ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के। मन वच तन से पूजू सिर नाय के।। ऊँ ह्रीं उपसर्ग रहित अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।14। क्षुधो रोग से पीडित सब जन देखिया। जीत क्षुधा आहार प्रभु नहीं लेखिया।। ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के। मन वच तन से पूजू सिर नाय के। ऊँ ह्रीं कवलाहार रहित अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।15।। तिष्ट समवसृत बीच प्रभु जी राजते। मुख दीखे चहुं और महा सुख काजते।। ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के। मन वच तन से पूजू सिर नाय के।। ॐ ह्रीं चतुर मुखविराजमाना अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।16। सब विद्या के ईश्वर हो जिन रायजी। ध्यावे प्रभु को कर्म नशे दुख दायजी।। ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के। मन वच तन से पूजू सिर नाय के।। ऊँ ह्रीं सकल विद्याधिपत्यातिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा॥17॥ पुद्गल पुंज सु एक होय यह तन बना। छाया नहीं प्रभु होय आप अतिशय घना।। __ ऐसो अतिशय होय महा जिन राय के। मन वच तन से पूजू सिर नाय के।। ऊँ ह्रीं छाया रहित अतिशय सहित अरहन्त देवेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा।।18॥ 954
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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