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________________ चौदह पूरबजिन धुनि सही, मिथ्यातम-नाशन-रवि कही। ये सब संशय नाशनहार, पूजों प्रवचन है सुखकार।। ऊँ ह्रीं चतुर्दशपूर्वसहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। प्रकीर्णक अंगे प्रवचन सार, ताके चौदह भेद निहार। ये सब संशय-तम-हर सूर, सो मैं जजों भाव भरपूर।। ऊँ ह्रीं प्रकर्णकांगसहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। सब जीवन तें समताभाव, तप संजम करने अति चाव। सो सामायिक प्रवचन जान, पूजों मैं वसुद्रव अर्घ्यं आन।। ऊँ ह्रीं सामायिकसहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। तामें चौबिस जिन कल्यान, और स्तवन तिनों का जान। चतुविंश स्तवन अंग सोय, सो मैं जजों भाव शुध होय।। ऊँ ह्रीं चतुर्विंशतिस्तवनसहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जिनप्रतिमा जिननाम सुभाय, तीर्थंकर इनको सिरनाय। वन्दन प्रवचन में इमि कही, सो मैं जजों शुद्ध चित सही।। ॐ ह्रीं वन्दनासहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। किये दोष यातें क्षय होय, जामें ऐसो कथन जु होय। सो प्रतिक्रमण प्रवचन जान, सो मैं जजों भक्ति उर आन।। ऊँ ह्रीं प्रतिक्रमणसहितायै श्री प्रवचनभक्ति भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 923
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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