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________________ भव्याम्बुजों को नित प्रफुल्लित, नाथ का भामण्डलम्। रविरश्मिवत् करता प्रकाशित, शान्ति जिन - गुणमण्डलम्। तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना । श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना॥40॥ ओं ह्रीं त्रैलोक्यनाथाह्लादकारकपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। क्षीरसागर की समुज्ज्वल, अमल लहरों से धवल। देवता गाते निरन्तर, आपके हैं गुण विमल तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना॥41॥ ओं ह्रीं परमोज्ज्वलगुणसहितपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वाचस्पती के तुल्य निर्मल, विशद-प्रतिभादायनी । आपकी है अर्चना ज्यों, पूर्णिमा की चांदनी ।। तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना । श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना।।42॥ ओं ह्रीं वाचस्पतिसमानपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। नवनिधि चतुर्दश रत्न का, स्वामित्व जो चक्रेश को । खग देव नर द्वारा समर्चित, पूजता तीर्थेश को तीर्थेश चक्रि अनंग पद, भूषित प्रभू की अर्चना । श्री शान्तिनाथ जिनेश की मैं, नित करूँ आराधना ॥ 43॥ ओं ह्रीं चक्रवर्तिपदप्रदाय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 90
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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