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________________ गज तुरंग वृष सेव न ठाने, जिनपद सेये भक्ति सु माने। भेदविज्ञान राह समझावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री वाहनसेवारहित-दर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जीवघात आयुध नै होई, सो आयुध पूजे नहिं कोई। आतमसेवा जिनको भावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ॐ ह्रीं श्री शस्त्रसेवारहित-दर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। हिंसकदेव न पूजे भाई, वीतराग कों जजे सु जाई। जो सांची श्रद्धा उर भावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ॐ ह्रीं श्री हिंसकदेवसेवारहित-दर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। निशि अहार त्याग करिसारा, आतम अनुभव भाव विचारा। भेदज्ञानते निज पर भवे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ॐ ह्रीं श्री निशाऽऽहाररहित-दर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। बिन छाने जल को नहिं पीवे, करुणा कर समतातें जीवे। चेतन आप अन्य जड़ भावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री जलगालनविधिसहित-रहित-दर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। वटफल जीवराशि नहिं खइये, दयाधार उर समता लहिये। तन विरक्त शुद्धातम भावे, तो सम्यक्त्व पूज्य कहलावे।। ऊँ ह्रीं श्री वटफलभक्षणरहित-दर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 848
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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