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________________ (गीता छन्द) द्यूत आमिष सुरा गणिका, खेट चोरी जानिये। परनारिवांछा सात हैं, ये व्यसन अघफल मानिये।। जो तजे सांची दृष्टि ताके, होय सब सुख आय जी। जो धरे दर्शविशुद्धि भावन, भलो जिनपद पाय जी।। ॐ ह्रीं श्री सप्तव्यसनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जो द्यूतलेखन चित्त वांछे, पाय दुख अपखेत हैं। श्रीमान को करके भिखारी लोकनिन्दा देत हैं।। जो जान खोटा तजे याकों, भावसमतालाय जी। जो धरे दर्शविशुद्धि भावन, भलो जिनपद पाय जी।। ऊँ ह्रीं श्री द्यूतव्यसनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। सप्तधातुन माहिं निन्दित, महाघिनकारी सही। या देखते ही अशन तजिये, खाय सोजिय अघमही।। जियघात विननाहोय आमिष, त्यागनाबुधिलाय जी। जो धरे दर्शविशुद्धि भावन, भलो जिनपद पाय जी।। ॐ ह्रीं श्री मांसव्यसनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जो पिये मदिरा, तजे शुधबुध, ज्ञान सकल गमाय है। या अमल माहीं मात भगिनी, नार भेद न थाय है।। यह व्यसनमदिरा हरे जुगभव, तजेपुण्यलसाय जी। जो धरे दर्शविशुद्धि भावन, भलो जिनपद पाय जी।। ऊँ ह्रीं श्री मदिरापानव्यसनरहितदर्शनविशुद्धि भावनायै अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 844
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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