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________________ कार्योत्सर्ग में महामंत्र, णमोकार साधु जन जपते हैं। परमेष्ठि पंच का चितवन कर, अपना शुध आतम भजते है।। गुरु भक्ति आदि के आदि अंत में कायोत्सर्ग विधान कहा। कायोत्सर्ग शिव सुख साधन, कायोत्सर्ग शुभ कर्म महा।। ॐ ह्रीं कायोत्सर्ग आवश्यक भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।21॥ शुध सम्यक दर्शन ज्ञान-चारित, रत्न-त्रय से मुनिवर पवित्र। चेतन ही उन्नति शिखर चढ़े, धोकर कर्मों का मैल मित्र।। पुदगल तन के धो लेने से, चेतन की शुद्धि न हो पाती। इसलिए स्नान से देह शुद्धि, की क्रिया न मुनिगण को भाती।। ॐ ह्रीं मंजन तजन गुण भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।22॥ संग्रह न कभी सुख का साधन, परित्याग मुक्ति पद का दाता। इस हेतु गेह तज मुनिवर ने, सब परिजन से तोड़ा नाता।। ऐसे मुनि शमन करें भूपर, भू ही इनकी आश्रय दाता। जीवन लीला के अनत समय, भू में ही देह समा जाता।। ऊँ ह्रीं भूशयन आसन गुण भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।23।। तन में यदि फांस लगे किंचित्, पीड़ा प्राणी को होती है। वस्त्रावृत देह दशा तथैव, मुनिगण को कष्ट संजोती है।। मुनि वस्त्र त्याग हो निरालम्ब, शिवपथ राही बढ़ते जाते। दश दिशा बने उसका अम्बर, वे नग्न दिगम्बर कहलाते।। ऊँ ह्रीं वस्त्रत्याग गुण भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥24॥ 802
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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