SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 800
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रस स्वाद न मन में लावें, जो श्रावक दे वह खावें। रसना इन्द्रिय वश कारी, मुनिराज जगत हितकारी।। ऊँ ह्रीं रसना इन्द्रिय जय भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥12॥ दरगंध सुगंधि समेता, घ्राणेन्द्रिय विषय विजेता। नहिं विषय चाह चित लावें, शुद्धातम को नित ध्यावै।। ॐ ह्रीं घ्राण इन्द्रिय जय भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥13॥ नासाग्र दृष्टि जिनराजा, मुनिराज तथैव विराजा। जो चंचलता चित लावै, मुनि दृष्टि उसे न लखावै।। ऊँ ह्रीं चक्षु इन्द्रिय जय भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।14। मृदु स्वर जग चित्त हरन्ता, मुनिवर को अरुचि करन्ता। कर्णेन्द्रिय विषय विरक्ता, मुनि मोक्ष सौख्य अनुरक्ता।। ॐ ह्रीं कर्ण इन्द्रिय विजय भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।15॥ षट आवश्यक मुनिराज दिगम्बर सामायिक, प्रतिदिन त्रिकाल विधि से करते। सामायिक में हो निराम्भ, मन वचन काय वश मैं करते।। मन की चचलता रुकने पर, सबके प्रति समता भाव जगे। ज्यों लहरों के रुक जाने पर, सरवर भी शान्त स्वभाव लगे।। ऊँ ह्रीं समता आवश्यक भूषिताय साधु परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥16॥ 800
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy