SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 767
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूरव भव में जो पुण्य किया, तप किया नदी तट गिरि वन में। घरवार तजा ममता छोड़ी, तन से भी मोह तजा मन में।। उस कठिन तपस्या के प्रतिफल, तन में पसेव का लेष नहीं। ऋतु बदली, बदल गये युग युग, प्रभु देह दीप्ति में ह्रास नहीं।।3।। ऊँ ह्रीं स्वेदाभाव रूपातिशय गुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु केवल ज्ञान ऋद्धि के वल, त्रैलोक्य त्रिकाल हुए ज्ञाता। जीवों की देख दशा दुखमय, कल्याण भाव प्रभु जग जाता।। पुनि समवशरण या गन्ध कुटी में, मधुर देषणा दे अर्हम। जिसके निमित्त से असंख्यात, प्राणी करते कल्याण स्वयम्।4।। ऊँ ह्रीं प्रियहितबचन रूपातिशय गुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जिनके अतुल्य बल की महिमा, का कथन बृहस्पति कर न सकें। जग में ऐसा उपमान नहीं, जिसको तुलना में रोप सकें। जब अतुलवली आदीश्वर को, विधि-विहित नहीं आहार मिला। षटमास निराहारी रहकर, भी महावली सा देह खिला।।5।। ऊँ ह्रीं अतुल बल रूपातिशय गुणमण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जो पूर्व भवों में पुण्य किये, उनसे तीर्थंकर प्रकृति गही। फिर श्वेत रुधिर धारा वाली, प्रभु चरम शरीर देह लही।। वह श्वेत रुचिर, पय सा पावन, निर्जीव निरोगी हो अनुपम। प्रभु देह रहे मल मूत्र रहित, ऐसा वर्णन करते आगम।।6।। ऊँ ह्रीं श्वेत रुधिर रूपातिशय गुण मण्डिताय अर्हत्परमेष्ठिने नमः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। 767
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy