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________________ अथ अष्टाकम् निर्मल स्वच्छ धवल शीतल जल, हीरक आभास द्युतिमान। स्वर्णकलश भर तुम्हें चढ़ाने, लाया हूं हे दयानिधान।। कल्पवृक्ष वा कामधुने सम, दीजे मनवांछित वरदान। यह रविव्रत पूजा स्वीकारें, जिनवर पाश्वनाथ भगवान।। ऊँ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा। मलयागिरि चंदन से सुरभित, केशर कुंकुमादि अनमोल। तपन-शमन के हेतु चढ़ाने, आया मन की ग्रन्थी खोल।। कल्पवृक्ष वा कामधेनु सम, दीजे मनवांछित वरदान। यह रविव्रत पूजा स्वीकारें, जिनवर पाश्वनाथ भगवान।। ऊँ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। निर्मल स्वेत समुद्रफेनसम, चन्द्रकिरण सम आभावान। शोभनीय उज्ज्वल अखंड यह, अक्षत लाया भक्तिप्रमान।। कल्पवृक्ष वा कामधेनुसम, दीजे मनवांछित वरदान। यह रविव्रत पूजा स्वीकारें, जिनवर पाश्वनाथ भगवान।। ऊँ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। औसकणों से दीप्तिमान शुभ, पारिजात पुष्पों के कुंज। लाया हूँ केतकी मालती, स्वर्णमयी चंपा के पुज।। कल्पवृक्ष वा कामधेनुसम, दीजे मनवांछित वरदान। यह रविव्रत पूजा स्वीकारें, जिनवर पाश्वनाथ भगवान।। ऊँ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। 739
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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