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________________ मोह कर्म की सप्त प्रकृति जव उपशमैं, उपशम सम्यक् धार मिथ्या मल को वमै। सम्यक् लब्धि मझार भेद उपशम कह्यो, सो धारक जिनराज नमों सब अघ दह्यो।। ऊँ ह्रीं मोहनीयकर्मणः सप्तानां प्रकृतिनाम् उपशमात् उपशमसम्यक्त्व प्राप्तेभ्यः भगवत् जिनेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा॥4॥ प्रकृति माह की केचित् उदय अभाव है, केचित् उपशम सत्ता मांहि रहाव है। लब्धि धरी यह क्षयोपशम सम्यक सही, पूजूं श्री जिनदेव करो मंगल मही।। ऊँ ह्रीं क्षयोपशम सम्यक्त्वसहितेभ्यः क्षयोपशमलब्धिप्राप्तेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा॥5॥ केचित् मोह की प्रकृति मूल क्षय जात है, क्षायक सम्यक् श्रद्धा तहं जिय पात है। ऐसी क्षायक सम्यक् लब्धि महान है, धारक श्री जिनदेव यजूं सुख खान है।। ऊँ ह्रीं क्षायक सम्यक्त्वसहितेभ्यः क्षायक लब्धि प्राप्तेभ्यः भगवत् जिनेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा॥6॥ जो निश्चय एकांत वाक्य हरतार है, स्याद्वाद नय आतम गुण विस्तार है। शुद्ध बुद्ध चिद्रूप करत श्रद्धान जू, पूजूं जिनवर क्षायिक सम्यक्वान जू।। ऊँ ह्रीं सम्यक् श्रद्धान सहितेभ्यः निश्चयनय सम्यक्लब्धिप्राप्तेभ्यः भगवत् जिनेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।। 7॥ निराकार निरअंजन अव्याबाध है, सिद्ध समान जिनातम अनुभव साध है। ऐसी निश्चय क्षायक सम्यक् लब्धि जू, धारत हे जिनराज जजूं गुण अब्धि जू।। ऊँ ह्रीं निरंजन निराकार अव्याबाधसिद्ध समान निजस्वरूप ज्ञायतेभ्यः निश्चयनय सम्यक् लब्धि धारक जिनेभ्यो अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा॥8॥ 681
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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