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________________ स्ववर्गोपगतां पीडां, क्षराग्निं बिन्द षट् स्वरम्। संबीजेन प्रहूः स्वघ्नं, शान्तिनाथं महाम्यहम्।7। ओं ह्रीं दुन्दुभिसत्प्रातिहार्यमण्डिताय दुन्दुभिप्रातिहार्य शोभनपदप्रदाय स्भ्ल्यूं बीजाय सर्वोपद्रवशान्तिकराय श्री शान्तिनाथाय अयम् निर्वपामीति स्वाहा। स्ववर्गोपगतां पीडां, क्षराग्निं बिन्दु षट् स्वरम्। खंबीजेन प्रहः स्वघ्नं, शान्तिनाथं महाम्यहम्।8। ओं ह्रीं छत्रत्रयसत्प्रातिहार्यमण्डिताय छत्रत्रयशोभनपदप्रदाय सर्वविघ्नहराय ख्भ्यूं सर्वोपद्रवशान्तिकराय श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। बीजाय हभमर्धझसखान् बीज, वर्णान् विधानतः। प्रलयं यान्तुं विघ्नौघाः, स्तोत्रेणार्येण संयजे।। ओं ह्रीं अष्टप्रातिहार्यसहिताय अष्टबीजमण्डनमण्डिताय सर्वविघ्नशान्तिकराय श्री शान्तिनाथाय प्रथमबलयमध्ये पूर्णाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा। द्वितीय बलय पूजा प्रारम्भ स्थापना हे शान्तिप्रभो ! हे शान्तिप्रभो, मेरे मन मन्दिर में आओ। अघवर्ग-विनाशन-हेतु प्रभो, निज शान्त छवि शुभ दर्शाओ।।1।। कर्मो के बन्धन खुलते हैं, प्रभु नाम तुम्हारा जपने से। भव-भोग-शरीर विनश्वर तब, क्षणभंगुर लगते सपने से।।2।। नरजन्म सफल यह होता है, जब ध्यान तुम्हारा आता है। निजरूप में लीन हुआ, प्रभु ! वह, भव-सागर से तर जाता है।।3।। ओं ह्रीं श्री सर्वकर्मबन्धनविमुक्त ! सकलविघ्नशान्तिकर ! मंगलप्रद ! पंचम चक्रेश्वर ! श्रीशान्तिनाथ भगवन ! अत्रावतर अवतर सम्वौषट् (इत्याह्वाननम्) 67
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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