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________________ मोक्षतणी अभिलाष भाव बरते सही। सो संज्वलन कषाय उदय ही तैं रही। ऐसे भाव जु भोग भोगलब्धी धरै। जिन पद जजू अबार सकल कारज सरै।। ऊँ ह्रीं सप्तर्मी भोगनाम लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।7। अष्टाविंशति प्रकृति मोहनी कर्म की। उपशमात ये उपशम भाव जु शर्म की। भुंजयंति सो भोग लब्धि को भेद है। तिन पद पूजू सार हरो भव खेद है। ऊँ ह्रीं अष्टमी भोगनाम लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।8। केचित कम्मन प्रकृति सूक्षमीकरण ये। भाव भुंजयंति भोग लब्धि सो धरण ये।। ऐसे जिनको नमूं उभय कर जोर ही। पूजु अरघ चढाय करम सबते रही।। ऊँ ह्रीं नवमी भोगनाम लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।9। जयमाला (दोहा) शुभ अतिशय चौतीस है, जीवन मुक्त जिनेश। समवशरण लक्ष्मी धरै, पूजित चक्रि सुरेश।। जै जै जै जै जै त्रिजगराय, सुर नर खग पूजित शीश नाय। तुम स्वयं बुद्ध शिव रूप देव, तुम विश्व प्रकास्यो तत्व भेव।।1।। तुम अखल निरंजन अचल रूप, तुम चहुंगति वर्जित मुक्तिभूप। तुम वीतराग अविकार शुद्ध, तुम ब्रह्मा विष्णु महेश बुद्ध।।2।। मुनिगण नित तुमरो ध्यान धार, सुख पावत है भव सिंधुपार। धनि आज दिवसमैं दरश पाय, अब चरण जजू भवदुख नशाय।। (धत्ता) जय गुण गण धारी, हो त्रिपुरारी, शिवमगचारी सुखकारी। जयमाल उचारी, अर्घ करारी, “चन्द” लही शरणा थारी।। ॐ ह्रीं अर्हन् परम ब्रह्मणेभोगलब्धिधारकजिनेभ्यो पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।। ।।इत्याशीर्वादः॥ 667
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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