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________________ प्रत्येकााणि तिया वस तहँ वा न कीजै, अपना शील भाव रखि लीजै। सकल नारि जननी सम जोवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।। ऊँ ह्रीं श्री स्त्रीसहवास-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।1।। नारी तन रति भाव न देखै, हाव भाव विभ्रम नहिं पेखें। शील धर्मरौं निज सुख जोवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।। ऊँ ह्रीं श्री मनोहरांगनिरीक्षण-वर्जनोत्तम-ब्रह्मचर्यधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।2। राग वचन कबहुँ नहि बोले, निज वच निज वाणी सम तोलै। राग वचन तूं प्रीति न होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।। ऊँ ह्रीं रागवचन-वर्जनोत्तम-ब्रह्मचर्यधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।3। पूरव भोग किये न चितारै, सो ही शील भाव उर धारे। राग भाव तजि नित रस जोवे, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।। ऊँ ह्रीं श्री पूर्वभोगानुस्मरण-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।4।। काम उदीपक अशन न खावै, षटरस माहिं न जिय ललचावै। निशदिन शील भावना होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।। ऊँ ह्रीं श्री वृष्येष्टरसवर्जनोत्तमब्रह्मचर्य धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।। तन श्रृंगार नहिं मन भावें, भूषित देखि नहिं हरषावै। शीलभरण विभूषित होवै, ब्रह्मचर्य जजि सब अघ खोवै।। ॐ ह्रीं श्री स्वशरीर-संस्कार-वर्जनोत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।6। 648
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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