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________________ रत्न सुवरण रजत आदि धन पाइये। घोटका विमान वाहनादि ह लहाइये।। जानि चपला समान अधिर दुखधाम ही। मोहतजि तासु को सु पूजि त्याग शिव लही। ___ ऊँ ह्रीं घनवाहनादिममत्व-त्यागधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। सहन छिनवै तिया जानि अपछर जिसी। विनय भरपूर रूपरंग रंभा जिसी।। जानि सम्पति सकल पाप विपदा महीं। मोह तजि तासु को सु पूजि त्याग शिव लही। ऊँ ह्रीं स्त्रीममत्व-त्यागधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। संग परिजन मनो हाट मेलो बनो। धर्मशाला विर्षे तीर्थयात्री मनो।। जानि गृह मोहकी सांकली है सही। मोह तजि तासु को सु पूजि त्याग शिव लही। ऊँ ह्रीं गृहकुटुम्बममत्व-त्यागधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। मूल वसु कर्मको कषाय भाव मानिये। तासु के प्रसंग चार योनी में भ्रमानिये।। सकल संसार का भार यह ही सही। मोह तजि तासु को सु पूजि त्याग शिवलही।। ऊँ ह्रीं कषायभावत्यागधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। राग अरु द्वेष दोय मोह विधितै बने। तासु वश जीव जग में लहै दुःख घने।। पाप पुण्य को प्रसार तासुतें ही सही। मोह तजि तासु को सु पूजि त्याग शिवलही।। ॐ ह्रीं रागद्वेषत्यागधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। मात सुत नारि धन राज तन सारजी। राग अरू द्वेष सर्व दुःख कर्तार जी।। पाप पुण्य धारि संसार दुःख धाम ही। मोह तजि तासु को सु पूजि त्याग शिवलही।। ऊँ ह्रीं ममत्वत्यागधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 637
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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