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________________ उत्तम तपो धर्म पूजा (अडिल्ल छन्द) अन्तर बाहर भेद कहे तप सारजी। दुविध भाव अघहार करन भव पारजी॥ तप बारह परकार कर्म गज केहरी । मैं पूजौं इस थानि जानि नित शुभ घरी।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्मांग अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्मांग अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्मांग अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। अथाष्टकम् (चौपाई) भवजलतरण नाव तप भाव। करि अघनाश ज् दैव उछाव। ऐसो तप निर्मल जल लाय । पूजों जामन मरण नशाव।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। त्रिभुवन में तप तिलक समान । याको मुनि धारैं हित ठान। तपहर चन्दन सुभग मँगाय । मैं पूजौं भव तप नशि जाय।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। (बेसरी छन्द) तपपै निरत लखे बहुतेरे, तप को जपें जु साहब मेरे। ऐसो तप अक्षत शुभ आनो, पूजौं फल अक्षत उपजानो।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। (पद्धरि छन्द) यह तप त्रिभुवन में पूज्य सार, ह तप नाना मंगल सुधार। ऐसो तप बहु शुभ फूल लाय, मैं पूजों तसु फलमदन जाय।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमतपोधर्मांगाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। 627
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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