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________________ प्रत्येयकाध्याणि (चौपाई) क्रोध सहित जिय सत नहिं कहै, झूठ वचन" अघ शिर लहै। क्रोध रहित जे वचन प्रमानि, सो सतधर्म चयो जिनवानी।। ऊँ ह्रीं श्री क्रोधातिचाररहित-सत्यधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1।। लोभ सहित जिय झूठ बखानि, सांच धरम ताकौ नहिं मानि। लोभ रहित सत धरम सुभाय, सो सन धर्म जजौं थुति गाय।। ऊँ ह्रीं श्री लोभातिचाररहित-सत्यधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।2।। सांच न कहै भीतियुत जीव, बोले असत सु वचन सदीव। भयतें रहित सत्य वच भाख, सो सत धर्म करो द्युति लाख।। ऊँ ह्रीं श्री भयातिचाररहित-सत्यधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।3।। हास्य सत्य को नाशनहार, तातें सहै महा दुख-भार। हास्य रहित सबधर्म कहाय, सो सतधर्म जजौं थुति गाय।। ऊँ ह्रीं श्री हास्यातिचाररहित-सत्यधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥4॥ जिन आज्ञा बिन भाखै बैन, पूर्वपर वच ठोक कहै न। ऐसे दोष सति रहित भाय, सो सतधर्म जजौ थुति गाय।। ऊँ ह्रीं श्री जिनाज्ञालंघनातिचाररहित-सत्यधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।। 611
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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