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________________ जल चंदन अक्षत फूल लाय, चरु दीप धूप फल अरघ भाय। यह धरम क्षमा उत्तम सुजान, मैं पूजौं मन वच भक्ति आन।। ऊँ ह्रीं श्रीउत्तमक्षमाधर्मांगाय अनर्घपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। प्रत्येकाध्याणि (अडिल्ल) पाप प्रकृति कर जीव, अशुभ बन्धन करयो। थावर नामा कर्म उदय दुखको भरयो।। पृथ्वी मांहि सु जाय सहै बहुत अध फला। तिनका रक्षणभाव क्षमा उत्तम भला।।1।। ऊँ ह्रीं पृथ्वीकायिकपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। जे जलकायिक जीव ज्ञान बिन दुख लहैं। इक इन्द्रिय के द्वार अतुल विपदा सहैं।। तिनको दुखमय जानि मुनी करुणा करें। तसु प्रसादतै झटिति मोक्ष वनिता वरै।।2।। ऊँ ह्रीं जलकायिकपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। अगनिकाय धर जीव एक इन्द्रिय सही। नाना दुख तन सहैं जलै सब जग मही।। इन पर करुणा भाव धरे जे भवि सही। सो ही उत्तम क्षमा मोक्ष दाता कही।।3।। ऊँ ह्रीं अग्निकायिकपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। पवन काय के जीव महा संकट सहैं। हाथ पांव सुख वचन थकी बाधा लहै।। हन पर करुणाभाव जती धारै सही। सो ही उत्तम क्षमा कही शिवकी मही।।4।। ॐ ह्रीं वायुकायिकपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। हरित काय में प्राणि अति वेदन लहै। छेदन भेदन कष्ट महा अघ फल सहै।। इन पर समता भव सुखी इनको चहै। सो ही उत्तम क्षमा धारी मुनि शिव लहै।।5।। ऊँ ह्रीं वनस्पतिकायिकपरिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। 594
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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