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________________ (सोरठा) धर्म हमारा नाथ, धर्म जगत का सेहरा। भव भव में हो साथ, और न वांछा मनविषै।। ।।मण्डलमध्ये वरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।। समुच्चय पूजा (त्रिभंगी छन्द) यह धर्म क्षमावा मान गुमावा, सरल सुभाबा सतिवानी। शुचिभाव करावा संजम लावा, तप करवावा अधिकानी।। शुचि त्याग बतावै नगन पुजावै, शील बढावै शिवदाई। यह धर्म दशारा थाप करारा, पूजन धारा शिरनाई।। ऊँ ह्रीं श्री दशलक्षणधर्म अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्री दशलक्षणधर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री दशलक्षणधर्म अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। (मणुयणाणंदकी चाल) क्षीरसागर तनी नीर शुभ लाइये। कनकझारी विषै धार गुण गाइये।। मरण उत्पति नहीं होय ता फल सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही।।1।। ऊँ ह्रीं श्री दशलक्षणधर्मेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। नीर संग अगर चन्दन घिस लायजी। सुभग पातर विषै धारि थुति गायजी।। जगत ताप तासु फल तुरत नाशै सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही।।2।। ऊँ ह्रीं श्री दशलक्षणधर्मेभ्य संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। लेय अक्षत भले मुक्ति फल से कहे। ऊजले अखण्ड सुभग स्वर्ण पातर लहे।। अखय पद पावनै आप मन में सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही।।3॥ ऊँ ह्रीं श्री दशलक्षणधर्मेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 589
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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