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________________ मुनिगण पार न पाइयो सुरा। मैं तुच्छ बुद्धि किम करूँजी बखान।।23।। बारबार विनती करूँ तुम्हारी। करुणानिधि मोकू करि निज दास।।24।। भविजन जो मुनिगुण धरै मना। पद-पूजत श्री गुरु बारबार।।25।। मुनि सरूप कू ध्यान कै मना, वत उतरै जी भवि भवदधि पार। मोहि तारोजी ऋषि दीनदयाल, चरना लागियो भला।।26।। (कवित्त) जे तपसूरा संजमधीरा, सिद्धबधू अनुरागी। रतनत्रय मंडित करमविहंडित, ते ऋषिवर बड़भागी॥ उपाध्याय अरु सर्वसाधुत्रय पदधारक सब त्यागी। पूज करत हूँ भक्ति भाव तैं, तुम सरूप लव लागी।27 ऊँ ह्रीं आचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-त्रयपद धारक अतीत अनागत वर्तमान काल संबंधि सर्वऋषीश्वरेभ्यः सर्वतुष्टि पुष्टि शांतिकरेभ्यः अनेक रोग-शोक आधि-व्याधि-डाकिनी-शाकिनी भूत-प्रेत व्यंतरादि दुष्ट ग्रह दुर्भिक्षादि सर्व विघ्न विनाशकेभ्यः सुभिक्ष ऋद्धि वृद्धि समृद्धि अनेक मंगलवितरकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः पूर्वार्धं निर्वपामीति स्वाहा। (छप्पय) जो या पूजा करै करावै सुरधरि गावै। अति उछाह करि जिन मंदिर में मंडल मड़ावै। देखै अरु अनुमोद करै जे भव्य निरंतर। तिनके घर” सर्वविघ्न भय नसैं डरंतर। सरूपचंद मुनि भक्ति वसि, रची स्वपरहित हेत।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ ॥ इति चौसठ ऋद्धि पूजा (वृहत् गुर्वावलि पूजा शान्ति विधान) संपूर्ण।। 586
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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