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________________ प्रत्येक पूजा दोहा औषधरिद्धि के भेद वसु, ता धारक ऋषिराय। भिन्न-भिन्न जिन के चरन, पूजूं अरघ चढ़ाय॥1॥ ऊँ ह्रीं अष्टभेद औषधरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। _(छंद अडिल्ल) अंग उपंगरु नखकेशादिक सर्वही, रज पद मुनिकी लगत हरत सब रुज मही। आमौषध ऋद्धि याहि मुनिवर धरै, ता ऋषि के वर पाद यजत शिव नित वरें।।2।। ऊँ ह्रीं आमौषध रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। मुनि मुख को खंखारथूक कूँ लगत ही, सर्वरोग मिटि जाय असाध्य जु तुरत ही। खेल्लौषध ये रिद्धि धार मुनिवर, पादपद्म हम यजत व्याधि सबही ह.।।3।। ॐ ह्रीं खेल्लौषध रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। मुनि के अंग के स्वेद माँहि जो रज परै, सो लागत तत्काल व्याधि सब ही हरै। यह जल्लोषधरिद्धिधार कूँ नित यजूं, निसदिन तिन के चरन कमल मैं भनँ।।4।। ऊँ ह्रीं जल्लोषध रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। दंत नासिका अंग मैल मल सर्व ही, सर्वव्याधि को नाश करत है लगत ही। मल्लोषध रिधि येह ताहि धारक मुनि, पूजत मन वच काय अर्घ करि कै गुनी।।5।। ॐ ह्रीं मल्लौषध रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। 567
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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