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________________ जल गंधाक्षत पुष्पजु नेवज, दीपधूप फल सार। स्वर्णथाल भरि अर्घ चढ़ाऊँ, करि जय जय जयकार।। मुनीश्वर पूजत हूँ मैं, विक्रियरिधि के धार। मनीश्वर, पजत हँ मैं॥9॥ ऊँ ह्रीं विक्रियारिद्धिधर सर्वमुनीश्वरेभ्यो अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। प्रत्येक पूजा (दोहा) विक्रियरिधि के एकदश, भेद धार ऋषिराज। भिन भिन तिन] अर्घ दे, पूनँ शिव हितकाज।।1।। ऊँ ह्रीं एकादश विक्रियारिद्धि सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। कमल तंतु पर जा निवसै, निराबाध निष्ठाई। अणु समान काया है जावे, यह अणिमारिद्धि भाई।। मुनीश्वर पूनँ अरघ चढ़ाई, ज्या विक्रियारिधि पाई। मुनीश्वर, पूनँ अरघ चढ़ाई ।।2।। ॐ ह्रीं अणिमा विक्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। चक्रवर्तिसंपत निपजावै, योजन लाख ऊँचाई। निज शरीर की क्षण मैं करत हैं, यह महिमा रिधि गाई।। मुनीश्वर पूजू अरघ चढ़ाई, ज्या विक्रियारिधि पाई। मुनीश्वर, पूनँ अरघ चढ़ाई ।।3।। ऊँ ह्रीं महिमा विक्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। शरीर बड़ो दीखत सब जनकूँ दीखै, अर्क तूल हलकाई। असी रिद्धि उपजत मुनिवर कँ, सो लघिमा जु कहाई।। मुनीश्वर पूनँ अरघ चढ़ाई, ज्या विक्रियारिधि पाई। मुनीश्वर, पूनँ अरघ चढ़ाई ।।4।। ऊँ ह्रीं लघिमा विक्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। 546
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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