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________________ वरदत्त आदि गणधरा एकादशा। नेमि के अवर मुनि सहस अष्टादशा।। नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं। धूप फल अर्घ लेय हम यजै महर्षिक।।22।। ऊँ ह्रीं श्री नेमि जिनस्य वरदत्तादि एकादश गणधर अष्टदश सहस्त्र सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। स्वयंभ्वादि गणधार दश अवर मुनिवरा। पाश्वजिनराज के सहस षोडश परा।। नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं। धूप फल अर्घ लेय हम यज महर्षिक।।23।। ऊँ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनस्य स्वयंभू आदिदश गणधर षोडश सहस्त्र सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। गौतमादिक सबै एकदश गणधरा। वीरजिन के मुनी सहस चउदश वरा।। नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं। धूप फल अर्घ लेय हम यजै महर्षिक।।24।। ऊँ ह्रीं श्री वीर जिनस्य इन्द्रभूमि गौतमादि एकादश गणधर चतुर्दश सहस्त्र सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। (छप्पय) तीर्थंकर चौबीस सबनि के गणधर सारे। चौदासै पच्चास और द्वय सर्वनिहारे। अवर मुनीश्वर सर्व संघ के सप्तप्रकार जू। लख अठ बीसरु अधिक अष्ट चालीस हजार जू।। इम तीर्थेश्वर सकल के, सर्व मुनीश मिलाय। अष्ट द्रव्यकण थाल भरि, पूनँ शीश नवाय।। ऊँ ह्रीं श्री चतुर्विंशति तीर्थंकराणां चतुश्शताधिकैक सहस्त्र द्विपंचाशत् सर्वगणधर अष्ट विंशतिलक्ष अष्ट चत्वारिंशत् सहस्त्र सप्त प्रकार संघ सर्वमुनीश्वरेभ्यः पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा। 528
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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