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________________ स्पर्शन के हैं आठ पंच रस रसना केरे । घ्राणेन्द्रिय के दोय चक्षु के पंच गिनेरे।। कर्णेन्द्रिय के सप्तबीस अरू सात विषय सब। इष्ट अनिष्टज मांहि करैं नहिं राग द्वेष कब॥7॥ सामायिक अरू वंदन स्तुति प्रतिक्रमण भजैं हैं। प्रत्याख्यान व्युत्सर्ग दिवस तिरकाल सधैं हैं।। भूमि सयन स्नान, त्याग नग्नत्व धरै हैं । कचलुंचै दिन मांहि एकवर असन करे हैं ॥ 8 ॥ खडे होय आहार करें सब दोष टाल मित। दंतधवन तिनतज्यो देहजिय भिन्न लख्यो नित।। अष्टाविंशति येजु मूलगुण धरत निरंतर । उत्तरगुण लख च्यारि असीधर बाह्य अभ्यंतर ॥9॥ (दोहा) इत्यादिक बहुगुण सहित, अनागार ऋषिराज। नमूं नमूं तिन पदकमल, तारनतरन जिहाज || इति पठित्वा मंडलोपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्। अथ समुच्चय पूजा (छन्द गीता) संसार सकल असार जा मैं सारता कछु है नहीं। धनधाम धरिनी और गृहिनी त्यागि लीनी वन मही।। ऐसे दिगम्बर हो गये अर होहिंगे वरतत सदा। इत थापि पूजूं मन वच करि देहिं मंगल विधि तदा ।। 1 ।। 519
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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