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________________ रूक्ष कटुक भोजन धरे, अमृत सम हो जाय। अमृत सम बच तृप्ति कर, जजू साधु भय जाय।। ___ऊँ ह्रीं अमृतश्राविऋद्धिप्राप्तेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।242॥ दत्त साधु भोजन बचे, चक्री कटक जिमाय। तदपि क्षीण होवे नहीं, जजू साधु हरषाय। ऊँ ह्रीं अक्षीणमहानऋद्धिप्राप्तेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।243॥ सकुड़े थानक में यती, करते वृष उपदेश। बैठै कोटि नर पशू, जजू साधु परमेश।। ऊँ ह्रीं अक्षीणमहालयऋद्धिधारकेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।244॥ या प्रमाण ऋद्धीन को, पावत तप परभाव। चाह कछू राखत नहीं, जजू साधु धर भाव।। ऊँ ह्रीं सकलऋद्धिसम्पन्न सर्वमुनिभ्यो पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।245।। (दोहा) चौदासे त्रेपन मुनी, गणी तीर्थ चौबीस। जूजं द्रव्य आठों लिये, नाय नाय निज शीस।। ऊँ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थेश्वराग्रिमसमावर्तिसत्रिपंचाशच्चतुर्दशशतगणधरमुनिभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।246॥ अड़तालीस हजार अर, उन्निस लक्ष प्रमाण। तीर्थंकर चौबीस यति, संघ यजू धरि ध्यान।। ___ऊँ ह्रीं वर्तमानचतुर्विंशतितीर्थंकरसभासंस्थायि एकोनत्रिंशल्लक्षाष्टचत्वारिंशतसहस्रप्रमितमुनीन्द्रेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। चार कोनों में स्थापित जिनप्रतिमा, मंदिर, शास्त्र व जिनधर्म के अध्य 469
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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