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________________ तजैं ममत्व काय का इसै अनित्य जानते, जु कांच खण्ड मृत्तिका सुपिण्ड सम प्रमाणते, खडे बनी गुफा महा स्व-ध्यान सार धारते, जजूं यती महान मोह राग द्वेष टारते।। ऊँ ह्रीं कायोत्सर्गावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अयं निर्वपामीति स्वाहा।।191॥ करैं शयन सु भूमि में कठोर कंकड़ानिकी, कभी नहीं चितारते, पलंग खाट पालकी। मुहूर्त एक भी नहीं गमावते कुनींद में, जजूं यतीश सोवते सु आत्मतत्व नींद में।। ऊँ ह्रीं भूशयननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।192।। करैं नहीं नहान सर्व राग देह का हते, पसेव ग्रीष्म में पड़े न शीत अम्बु चाहते। बनी प्रबल पवित्र और मन्त्र शुद्ध धारते, जजूं यतीश शुद्ध पाद कर्म मैल टारते।। ऊँ ह्रीं अस्नाननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।193॥ करैं नहीं कबूल छाल वस्त्र खण्ड धोवती, दिगानि वस्त्र धार लाज संग त्याग रोवती। बने पवित्र अंग शुद्ध बाल से विचार हैं, जजूं यतीश काम जीत शीलखड्ग धार हैं। ऊँ ह्रीं सर्वथावस्त्रत्यागनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।194॥ करैं सु केशलोंच मुष्टि धैर्य भावते, लखाय जन्म जन्तु का स्व केश ना बढ़ावते। ममत्व देह से नहीं न शस्त्र से नुचावते, जजूं यती स्वतंत्रता विहार चित्त रमावते।। ऊँ ह्रीं कृतकेशलोचनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।195।। करैं न दन्तबन कभी तजा सिंगार अंग का, लहें स्व खान पान एकबार साध्य अंग का। तथापि दंत कर्णिका महान ज्यौति त्यागती, जजूं यतीश शुद्धता अशुद्धता निवारती ।। ऊँ ह्रीं दन्तधावनवर्जननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्यः अयं निर्वपामीति स्वाहा।।196।। 462
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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