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________________ तपें द्वादशों तप अचल ज्ञानधारी, सहें गुरु परीषह सुसमता प्रचारी। परम आत्मरस पीवते आप ही तें, भजूं मैं गुरू छूट जाऊं भवों तें।। ऊँ ह्रीं तपाचारसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।113॥ परम ध्यान में लीनता आप कीनी, न हटते कभी घोर उपसर्ग दीनी। सु आतमबली वीर्य की ढाल धारी, परम गुरू जजू अष्ट द्रव्ये सम्हारी।। ऊँ ह्रीं वीर्याचार संयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥114॥ तपः अनशनं जो तपें धीर-वीरा, तजें चारविध भोजनं शक्ति धीरा। कभी मास पक्षं कभी चार त्रय दो, सु उपवास करते जजूं आप गुण दो।। ॐ ह्रीं अनशनतपोयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।115॥ सु ऊनोदरी तप महा स्वच्छकारी, करे नींद आलस्यका नहिं प्रचारी। सदा ध्यान की सावधानी सम्हारे, जजूं मैं गुरू को करम घन विदारें।। ऊँ ह्रीं अवमोदर्यतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।116॥ कभी भोजना हेतु पुर में पधारें, तभी दृढप्रतिज्ञा गुरू आप धारें। यही वृत्ति-परिसंख्य तप आशहारी, भजूं जिन गुरू जो कि धारे विचारी।। ॐ ह्रीं वृत्तिपरिसंख्यातपोभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।117॥ कभी छः रसों को कभी चार त्रय दो, तजें राग वर्जन गुरू लोभजित हो। धरे लक्ष्य आतम सुधा सार पीते, जजूं मैं गुरू को सभी दोष बीते।। ऊँ ह्रीं रसपरित्यागततोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।118।। 448
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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