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________________ तज राग-द्वेष ममता विहाय, पूजकजन सुख अनुपम लहाय। गुणसागर सागर जिन लखाय, पूनँ मनवच अर काय नाय।। ऊँ ह्रीं सागरजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।19॥ नय अर प्रमाणसे तत्व पाय, निज जीवतत्व निश्चय कराय। साधो तप केवलज्ञान दाय, ते साधु महा वन्दौं सुभाय।। ऊँ ह्रीं महासाधुजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥20॥ दीपक विशाल निजज्ञान पाय, त्रैलोक लखे बिन श्रम उपाय। विमलप्रभ निर्मलता कराय, जो पूजें जिनको अर्घ लाय।। ॐ ह्रीं विमलप्रभाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।21॥ भवि शरण गर्हेमन शुद्धिकार, गावें थुति मुनिगण यश प्रचार। शुद्धाभदेव पूजू विचार, पाऊँ आतम गुण मोक्ष द्वार।। ॐ ह्रीं शुद्धाभदेवाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥22॥ अंतर बाहर लक्ष्मी अधीश, इन्द्रादिक सेवत नाय शीस। श्रीधर चरण श्री शिव कराय, आश्रयकर्ता भवदधि तराय।। ॐ ह्रीं श्रीधराय अयं निर्वपामीति स्वाहा॥23॥ जो भक्ति करें मन-बचन काय, दाता शिवलक्ष्मी के जिनाय। श्रीदत्त चरण पूर्जे महान, भवभय छूटे लहू अमल ज्ञान।। ॐ ह्रीं श्रीदत्तजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥24॥ 431
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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