SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुभ गंधित धूप चढाऊँ, कर्मों के वंश जलाऊँ। गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई।।7।। ऊँ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सुन्दर दिवि भव फल लाए, शिव हेतु सुचरण चढ़ाए। गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई।।18।। ॐ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। सुवरण के पात्र धराये, शुचि आठों द्रव्य मिलाए। गुरु पंच परम सुखदाई, हम पूजें ध्यान लगाई।।9। ॐ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोत्सवे सर्वयज्ञेश्वर जिनमुनिभ्यो अनध्यपद प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। (अडिल्ल) काल अनन्ता भ्रमण करत जग जीव हैं। तिनको भव तें काढ़ करत शुचि जीव हैं। ऐसे अर्हत् तीर्थनाथ पद ध्याय के। पूनँ अर्घ बनाय सुमन हरषाय के। ऊँ ह्रीं अनन्तभवार्णवभयनिवारकानन्तगुणस्तुताय अर्हते अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1।। (गीता) कर्म-काष्ठ महान जाले ध्यान-अग्नि जलायके। गुण अष्ट लह व्यवहारनय निश्चय अनंत लहायके।। निज आत्म में थिररूप रहके, सुधा स्वाद लखायके। सो सिद्ध हैं कृतकृत्य चिन्मय, भनूँ मन उमगायके।। ऊँ ह्रीं अष्टकर्मविनाशक-निजात्मतत्वविभासक-सिद्धपरमेष्ठिने अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।2। 426
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy