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________________ संसाराम्बुधिपारदं जिनपतिं चन्द्रप्रभं मोक्षदं, सुग्रीवाभिधभूपजं गणपतिं सल्ल्क्षणानन्दनं। शुभ्रांशुच्छविराजितं वरशिवयोषारतं निर्मलं, वन्दे चापशतैक चार्द्धप्रमकं वषभ मृगाङ्काङ्कित॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपेत् नव देवता-अध्य जल गन्ध अक्षत पुष्पचरु दीपक सुधूप फलाध्य ले, वर रत्नत्रय निधि लाभ यह बस अध्य से पूजत मिलें। नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें, सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल पाय शिवकान्ता वरें।। ॐ ह्रीं श्री अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु जिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्यालयेभ्यो अनध्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। अथ द्वितीय वलय पूजा द्वितीय वलय में वर्तमान चौबीस तीर्थंकर एवं शासन यक्ष-यक्षियों के अध्य चढ़ावें। स्थापना ये जित्वा निजकर्मकर्कश रिपून कैवल्यमाभेजिरे, दिव्येन ध्वनिनावबोध्य निखिलं चकम्यमाणं जगत्। प्राप्ता निवृतिमक्षयामतितरामंतातिगामादिगां, यक्ष्ये तान् वृषभादिकान् जिनवरान् वीरावसानानह।। ऊँ ह्रीं वृषभादि वर्द्धमानपर्यन्त चतुर्विंशत् जिनेन्द्रा! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं वृषभादि वर्द्धमानपर्यन्त चतुर्विंशत् जिनेन्द्रा! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं वृषभादि वर्द्धमानपर्यन्त चतुर्विंशत् जिनेन्द्रा! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। 377
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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