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________________ शक्र विर्षे बल ऐसा, भू उल्टी करे। भूमी जान अनादि, नाहिं कबहूँ टरे।। ऐसा कहना संभावित, सत जानिये। या जुत सम्यग्वृत्त, जजे हित मानिये।। ओं ह्रीं संभावनासत्यभाषासमितिसहित सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मेरु असंखे द्वीप, नरक सुर थल सही। कंदमूल में जीव, अनन्ते जिन कही।। भावसत्य संजोय, समिति वच जानिये। या जुत सम्यग्वृत्त, जजे हित मानिये।। ओं ह्रीं भावसत्यभाषासमितिसहित सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। का को किसकी उपमा, देकर भाषिये। ज्यों दानी सुरवृक्ष, जगत में आंकिये।। सो उपमा सत जान, समिति वच ठानिये। या जत सम्यग्वृत्त, जजे हित मानिये।। ओं ह्रीं उपमासत्यभाषासमितिसहित सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। प्राण जांय तो जाय, असत भाषे नहीं। भाषे तो सत्य बैन, जिसे जिनध्वनि कही।। सो ही भाषासमिति, भव्य उर आनिये। या जुत सम्यग्वृत्त, पूज्यतम मानिये। ओं ह्रीं भाषासमितिसहित सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। पात्रनिमित्त सु भोजन, जो दाता पचे। तो यह दोष ‘उद्देशिक', दाता सिर रचे।। सो भोजन मुनि तजे, एषणा लाय जी। या जुत सम्यग्वृत्त, जजो शिवदाय जी॥ ओं ह्रीं औद्देशिकदोषरहितैषणासमितिसहित सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। पात्र जनों को देख रसोई जो करे। दाता ‘अध्यदि' दोष, आपने सिर धरे।। सो भोजन मुनि तजे, एषणा लाय जी। या जुत सम्यग्वृत्त, जजो शिवदाय जी।। ओं ह्रीं दोषरहितैषणासमितिसहित सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 315
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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