SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैं बहुश्रुत जोई, भरम न कोई, चर्चा जोई, बात करो। मैं षट् मत जोये, पंडित टोये, सब मत जोये, ज्ञान धरो।। 'विद्यामद' ये ही, तजि भवि जेही, सरधा ये ही जिनवानी। सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई, मुनि मानो।। ओं ह्रीं विद्यामदरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। मोकों नृप जाने, मुखिया माने, जग सन्माने, हुकुम घनों। चाहों मैं मारों, तथा उघारों, वचन उचारों सोइ ठनों।। यह मद ‘अधिकारी' तज भवधारी, भाव सम्हारी धुनि ठानी। सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई, मनि मानी।। ओं ह्रीं अधिकारमदरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जह शंका आवे, धरम नशाये, पाप बढ़ावे, दुखदाई। शंका जब होई, सम्यक् खोई, सरधा वोई मन लाई।। यह ‘शंका' मद है, फल अति खल है, त्याग सु-कल है, मन आनी। सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई, मुनि मानी।। ओं ह्रीं शंकामलरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जो वृष-रस चाखे, फल अभिलाखे, जगसुख भाखे, मोहि मिले। मैं जिनवृष सेऊँ, खगथल लेऊँ, सुरसुख वेऊँ, चाह फले।। यह वाञ्छा जानो, काँक्षा मानो, तज वच आनो, जिनवानी। सम्यक् सुध सोई, जजि अघ खोई, जिनध्वनि जोई, मुनि मानी।। ओं ह्रीं काँक्षामलरहिताय श्री सम्यग्दर्शनाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 275
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy