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________________ अथ समुच्चय पूजा स्थापनाः गीतिका छन्द सत्य दर्शन ज्ञान चारित, मोक्ष मारग जिन कहे। मोक्षाभिलाषी धरें इनको, इन बिना शिव ना लहे।। यों जानि तीनों रत्न पूजों, ध्याय के इसही धरा। उर भक्ति धर मन वच काया, ता फलें सब अघ हरा।। ओं ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्ररूपरत्नत्रयधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इत्याह्वाननम्। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। पुष्पांजलि क्षिपामः। अष्टकम् (चाल मुनियानन्दी) नीर निरमल पदम, कुण्ड को सार जी। उज्ज्वलो क्षीरसम, सरस या धार जी।। रत्नझारी विषे, लेय गुण गाय के। जजों दरशन सुज्ञान, वृत्त हरषाय के।। ओं ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः जलम् निर्वपामीति स्वाहा। बावनों चन्दना, अगर शुभ लाइये। नीर निरमल थकी, घसि सुरभि लाइये।। कनक पियाले विर्षे, धरि सुगुन गाय के। जजों दर्शन सुज्ञान, वृत्त हरषाय के।। ओं ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः सुगन्धम् निर्वपामीति स्वाहा। श्वेत अक्षत सुभग, शुद्ध नख सिख सही। गन्धधर यों यथा, फूल कुन्दा कही।। धार पातर विषे, आप कर लायके। जजों दर्शन सुज्ञान, वृत्त हरषाय के।। ओं ह्रीं श्री सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 267
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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