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________________ धूप दशविधि गंध सुलेयके, कर्मनाशक सन्मुख खेयके। पूजिये श्रुतज्ञान प्रवाद को, जयधवल जजि सम्यक्ज्ञानको।। ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भूतस्याद्वादाङ्कितजयधवल श्रुतज्ञानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7। फल मनोहर चक्षु सुहावने, गंध रसयुत मन ललचावने। पूजिये श्रुतज्ञान प्रवाद को, जयधवल जजि सम्यक्ज्ञानको। ऊँ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भूतस्याद्वादमुद्राङ्कितजयधवल श्रुतज्ञानाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।8। अष्ट द्रव्य सजों गुण गायके, पूजिहों वसु अंग नवाय के। पूजिये श्रुतज्ञान प्रवाद को, जयधवल जजि सम्यक्ज्ञानको।। ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भूतस्याद्वादमुद्राङ्कितजयधवल श्रुतज्ञानाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।9। अथ जयमाला जय जय श्रुतसागर ज्ञान उजागर, विश्व विमल कल्याणकरा। स्यात्पद कर चिन्हित स्वपर विभाजित, दरशावत पदमोक्षधरा।। जयधवल तुम्हारे शासन ने मिथ्यातम दूर भगाया है। सदज्ञान प्रकाश किया जगमें, भवि जीवन को समझाया है।1। चैतन्य स्वरूप अनूपधरे दृग ज्ञान रूप दरशाया हे। पर काल अनादि से मोह लगा, संग नाना वेष बनाया है।2। नर नारक पशु पर्याय दिखाकर देवपुरी पहुंचाया है। गति चार चौरासी लक्ष स्वांग धरि बहुविधि नृत्य कराया है।3। काल अनन्त निगोद मांहि बसि जन्म मरण करवाया है। इक श्वांस मात्र में बार अठाहर मर मर ज्ञान घटाया है।4। फिर काल लब्धि बल निकसि तहां से त्रस थावर तन पाया है। 22
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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