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________________ दोहा ऐसे सिद्ध महन्त को, पूजों मैं शिरनाय। उतर उतर अपवर्ग से, तिष्ठ तिष्ठ इत आय।। ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन् संवौषट्। ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सिन्निहितो भव भव वषट्। अष्टक (त्रिभंगी छन्द) गंगाजल आनो, निरमल छानो, तप्त करानो शुद्ध महा। झारी भर नाचों, तन मन राचों, आनन्द सांचो हृदय लहा।। ते सिद्ध लहन्ता, सब गुणवन्ता, पूजत सन्ता भक्ति करों। निजमन हरषाऊँ, पुण्य कमाऊँ, करम नशाऊँ मुक्ति वरों।। ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।। केशर रंग पियरा, घिसके नियरा, चन्दन सिपरा गंध महा। धर हेम कटोरा, युग का जोरा, षटपद शोरा करत जहाँ।। ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।2। तंदुल बहु लीने, खंड विहीने, शुद्ध सु बीने धोय लिये। धर मध्यसो थारा, शशि उनिहारा, देखत प्यारा हरष हिये। ऊँ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।3। ले सुमन घनेरे, ऋतु ऋतु केरे, मन हुलसेरे देखत ही। धर मध्य सु थारा, भाव उजारा, मदन निवारा सेवत ही।। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।4।। 198
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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