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________________ चार वन तनै मिलि भये षोडश थला। पांच मेरुन तने चार बीसी फला।।5।। मेरु इक शैल गजपदंत चव जानजी। पंच मेरुन तनै बीस सुख थानजी।। पंच ही मेरु के वृक्ष दश थाय हैं। सालिमल जंबू वृक्ष नाम शुभ दाय हैं।।6।। मेरु इक एक षट् कुलाचल सारजी। पंच के तीस बहु धरें विस्तारजी।। जान वैताढ चौंतीस इक मेरु के। एक सत सतर पंच मेरु शुभ घेर के।।7। जानी वक्ष्यार इक मेरु के षोडसा। पंच मेरुन तने असी गिन मोडसा।। इश्वाकार दोइ धातकी खंडजी। दोइ गिन अर्ध पहुकर धरा मंडजी।।8।। सकल यह अकीरतम थान जानों सही। इन विर्षे सबन पै थान जिन शुभ मही।। पंच मेरुन के सनमंध सब गाइये। तीन सत और चोरानवे पाइये।॥9॥ जानकों तौ सकत हीन हम हैं सही। भक्त वस भावना करत हैं इस मही।। आठ ही द्रव्यसुध लेय थुत गायजी। जजत हों सकल नि गेह हरषायजी।।10। प्रोष पूजा करी राग हिरदें धरी। तासतें पुन्य की पोट उरमें भरी।। तास फल भाव अति निरमले हो जाए। करो तब पाठ यह सुफल मानो भए।।11।। और सब जगत भ्रमजाल कवि जानियो। एक जिन चरन को सरन सतमानियो।। औ नहीं आस यह चाहि जानों सही। हाथतें जजै यह थान फिर शिवमही।।12।। दोहा पंच मेरु की आरती, और अकिरतम थान। तिन पद 'टेक' नमो सदा, जो चाहो सुध ज्ञान।।13।। ऊँ ह्रीं पंचमेरुसंबन्धिजिनालयेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। (इति पंचमेरु विधान समाप्त) 196
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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