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________________ मेरु अचल की पश्चिम जेइ, षोडश विजयारध गिर लेइ। तिन सबपै इक-इक जिनथान, सो हैं पूजौं शक्ति प्रमान।।14।। अचलमेरु की उत्तर धरा एक खगाचल पर्वत परा। तापै एक जिनालय जान, सों हौं पूजौं प्रमान।।15।। खंड धातकी दक्षिण जाय, इष्वाकार एक गिर पाय। ता पै एक जिनालय मान, सो हौं पूजौं शक्ति प्रमान।।16। ऊँ ह्रीं अचलमेरु पश्चिमदिशि षोडशविजयार्धेषु षोडशचैत्यालयेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं अचलमेरु उत्तरदिश्येक विजयार्धस्यैकजिनालयाघु निर्वपामीति स्वाहा। ॐ ह्रीं धातकीखंडदक्षिणदिश्यवक्ष्वाकारपर्वतोपर्यक जिनालयाचँ निर्वपामीति स्वाहा। ऊँ ह्रीं धातकीखंडस्योत्तरदिश्यि क्ष्वाकारपर्वतोपर्येकजिनालयाचँ निर्वपामीति स्वाहा। ऊँ ह्रीं अचलमेरुसम्बन्धिजिनालयेभ्यो महाघु निर्वपामीति स्वाहा। अथ जयमाला उत्तर दिश खंड धातकि माहिं, इक्ष्वाकार मध्य में पाहिं। ता पै एक जिनालय मान, सोमैं पूजौं शक्ति प्रमान।17। ऐसे अचल मेरु विध जोय, सो-सो धरा जिनालय सोय। ते हौं अरघ लाय हरषाय, पूजौं सब जिन थल थुति गाय॥18॥ दोहा अचल मेरु पै जिन न्हवन, होय मुनि शिव जाय। तातें तीरथ निरमलौ, मैं पूजौं गुन गाय।।1।। 180
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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